Tuesday, April 17, 2007
चलता जा रहा हूँ...
एक रास्ता है ऐसा, धुंधला सा दिख रहा है,
पर इसी पर निरंतर मैं चलता जा रहा हूँ
हर कोने पर किसी का ईमान बिक रहा है
मैं बेबसी का लेप खु़दपर मलता जा रहा हूँ।
मुझे बना गई है माया बधिर और मूक
बेड़ियों में बंधा हूँ, और फिसलता जा रहा हूँ
खा रही है मुझे ना जाने कैसी भूख
और बहते, बरसते कीचड़ में, मैं गलता जा रहा हूँ।
अनेक हैं और मुझसे, भीड़ में अज्ञानी,
जाने कितनों को तो मैं ही कुचलता जा रहा हूँ
पर दर्द अब चुभता नहीं, ख़ून हो गया है पानी
कड़वाहट और अँधेरे को सहज निगलता जा रहा हूँ।
सच्चाई यही है कि सच्चाई अब नहीं रही
और उसी की चिता के साथ मैं जलता जा रहा हूँ
इस रास्ते पर सभी समान हैं, ग़लत और सही
मैं भी इसी साँचे में अब ढलता जा रहा हूँ।
पहुँचना कहाँ है यह सोचने कि फुर्सत कहाँ
जब खु़द चुनावी मुद्दों सा मैं टलता जा रहा हूँ
रेत के महलों सा जीवन सामने है ढह रहा
मैं फिर उनका स्थान बदलता जा रहा हूँ।
सभी मुझसे हैं, मैं सब जैसा हूँ
विश्व नामक कढ़ाई में उबलता जा रहा हूँ
हाँ, मैं वही पापी पैसा हूँ
मानवता कि परिभाषा बदलता जा रहा हूँ।
मैं चलता जा रहा हूँ...
मैं चलता जा रहा हूँ...
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